Wednesday 22 August 2018

जैन दर्शन में चौदह गुणस्थान, संवर और निर्जरा की आसान शब्दों में समझ




इस विडियो में हम ये देखेंगे की इस पृथ्वी पर जीवित जीवों को संसार के दुखों में से निकल कर मोक्ष पाने की जो पूरी यात्रा है| वह यात्रा को जैन दर्शन में चौदह गुणस्थान में विभाजित किया गया है| और उस स्थान को आसानी से पार करने के लिए संवर और निर्जरा की विधि बताई है| वह सब क्या है? और हम उस पर कैसे चल सकते है? और ये भी देखेंगे की ये पूरी बात कैसे वेदों के सात चक्रों और सात शरीर, महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग और भगवान बुद्ध के चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग के साथ समानता में है?

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ये विडियो की टेक्स्ट आप मेरे ब्लॉग से पढ़ सकते है या डाउनलोड कर सकते है|

तो आई ये जैन दर्शन के चौदह गुणस्थान विषय को आगे देखे|

जैन दर्शन का मानना है की ये सृष्टि का आदि या अंत नहीं पर वह लाखों वर्षों में फैलती सिकुड़ती रहती है| और अगर आप चाहो तो सिद्ध शिला पर जा सकते हैं| जिसे मोक्ष कहा गया है|
अगर आप संसार में रहते हो तो आप को तकलीफ होती रहती है और अगर आप मोक्ष में चले गये तो आप की सारी तकलीफ दूर हो जाती है|

ये सारा ज्ञान २४ तीर्थंकरों ने लाखों वर्षों में इकट्ठा किया है| पहले ज्ञान को लिख कर संग्रह नहीं किया जाता था| पर इक गुरु उसे कई शिष्य को पाठ करता था| कई बरसों तक रटन करने से शिष्य को सब याद हो जाता था और फिर शिष्य दूसरे शिष्यों को पाठ करवाता था| उस सूत्रों को आगम कहा जाता है| बाद में कई आचार्यों ने आगम पर अपनी टिका ऐ भी लिखी|

ये सारी बातें पहले प्राक्रत, पाली और संस्कृत भाषा में लिखी गई और फिर उसका हिन्दी में अनुवाद किया गया| यूं तो हिन्दी में लिखा एक एक शब्द बहुत ही सुंदर और महत्वपूर्ण है| पर उसमें से ज्यादातर शब्द आज बोलचाल की भाषा में प्रचलित नहीं इसलिए उन शब्द को समझ ना जरूरी है|

आज हमें पाठ करके उन शब्दों का रटन करने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि अभी हमारे पास प्रिंटिंग है, Google है जब चाहे तब सब लिखा हुवा मौजूद है| पर उसे समझ ना बहुत जरूरी है| रटन तो कोई भी कर ले सकता है पर जब तक इन बातों को समझ कर हम अपने जीवन में नहीं उतारते तब तक फायदा नहीं हो सकता|

उदाहरण के लिए मैं अगर ये कहुं की
“मोह और मन वचन काय की प्रवृत्ति के निमित्त से होने वाले जीव के अंतरंग परिणामों की तरतमता को गुणस्थान कहते है|”

तो आप को सायद ही समझ में आए इसलिए मैंने उसे आसान शब्दों में बताया है| जैसे की
“विचार, वाणी, शरीर की प्रवृत्ति और मोह की वजह से हमारी भावना ऑ में जो उतार चढ़ाव होता है उस के क्रम को गुणस्थान कहते है|”

यहाँ मैंने अपनी समझ के अनुसार ये सब कुछ आसान भाषा में बताया है| अगर आप आसान शब्दों में नहीं पर सूत्रों का पाठ करने का आग्रह रखते है तो फिर आप को कोई जैन मुनि से शिखना पड़ेगा|

आई ये सब से पहले चौदह गुणस्थान के नाम देखते है और फिर एक एक को विस्तार से समझते है|

१. मिथ्याद्रष्टि / मिथ्यात्व
२. सासादन / सम्यक्-दृष्टि
३. मिश्रदृष्टि / सम्यक मिथ्याद्रष्टि
४. असंयत / अविरत सम्यग्द्रष्टि
५. देश-विरत / संयतासंयत

ऐसे ही सभी शब्दों का हिन्दी में अनुवाद किया जाता है तब, अलग-अलग दो तिन शब्द हो सकते है इसलिए यहाँ मैंने शब्दों पर नहीं पर अर्थ पर जोर दिया है की तीर्थंकर कहना क्या चाहते है|

६. प्रमत्त संयत
७. अप्रमत्त संयत
८. अपूर्वकरण
९. अनिवृतिकरण
१०. सूक्ष्म-साम्पराय
११. उपशान्तमोह
१२. क्षीणमोह
१३. सयोग केवली
१४. अयोग केवली

आई ये एक एक गुणस्थान को विस्तार से देखे|
मेरे चक्रों वाले विडियो में हमने देखा था की कैसे हम परम ऊर्जा या शून्य से मछली, पेड़, कछुवा जैसे जीवों में विकसित होते हू वे मनुष्य बने और ये भी देखा था की कैसे हम चक्रों को विकसित करके बुद्धिमान मानव, देव या दानव जैसे जीवों में विकसित हो सकते है|

यही बात जैन दर्शन में नाम कर्म और गुणस्थान के द्वारा बहुत गहराई से बताई गई है|
जब हमारा संसार एक है और संसार के दुखों से छुट कर बिना दुःख वाली स्थिति पाने की बात एक ही है तो फिर उस स्थिति को मोक्ष कहे या निर्वाण कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए| फिर हमारी गलती कहा होती है| वह मैं एक उदाहरण से बताना चाहूँगा|

अगर आप को कोई पूछे की आप के भारत देश में शिक्षण लेने का क्रम कैसा है? तो कोई ये बता सकता है की हमारे यहाँ

School, Bachelors, Masters, Ph. D. 

कोई ये कह सकता है की

Primary School, Secondary School, Higher Secondary School, Graduation, Post-Graduation, Ph. D.

कोई ये भी बता सकता है की School के कुल मिलाकर १२ साल होंगे, Graduation में Commerce में ३ साल और Medical में ५ साल लेंगे यानी ज्यादा जानकारी भी दे सकता है|

और कोई इस से भी आगे जा कर आप को ये बता सकता है की हर एक साल में कौन कौन से विषय आयेंगे और आप उसे शिखने के लिए क्या कर सकते है|

अब यहाँ जैसे पहले में ४ भाग और Bachelors शब्द बताएं और दूसरे में ६ भाग और Graduation शब्द बताएं और तीसरे में तो बहुत सारे वर्ष बताएं फिर भी हम जानते है की ये सब एक ही बात कर रहें है|
उसी तरह से किसी ने ५ चक्र, किसी ने ७ चक्र, किसी ने अष्टांग योग तो किसी ने १४ गुणस्थान से बात को समझाया है| पर हमारा ईगो और नासमझी सब झगड़े करवाता है|

तो आई ये पूरी बात को समझे|

सब से पहले सिर्फ ऊर्जा थी| इस ऊर्जा से ही हम बने है और इस ऊर्जा के अंदर ही हम होते है पर यहाँ सिर्फ समझ ने के लिए मैंने सब बाहर बताया है|

सब से पहले जब ऊर्जा को कोई अनुभव नहीं था तो उस ऊर्जा को निगोद कहा गया है|
फिर लाखों, करोड़ों वर्षों में ऊर्जा घनीभूत हो कर अमीबा जैसा जीव बना फिर उस से मछली, पेड़, कछुवा, बंदर, शेर जैसे प्राणी आए और आखिर में मनुष्य विकसित हुआ| पर मनुष्य अभी प्राणी जैसा ही था क्योंकि उस के पास आध्यात्मिक समझ नहीं थी|

इसलिए बिना आध्यात्मिक समझ वाले मनुष्य को मिथ्याद्रष्टि कहा गया| मिथ्याद्रष्टि यानी गलत समझ वाला अभी उसके पास सही समझ नहीं| अभी वह ये मान रहा है की ये संसार ही सब कुछ है|

इसी बात को चक्रों में मूलाधार चक्र से बताया गया है| की ऐसा मनुष्य जो सिर्फ खाने पीने और संभोग के रस में ही डूबा रहता है| अगर आप ने सात चक्रों, सात शरीर और कुण्डलिनी शक्ति वाला मेरा विडियो ना देखा हो तो उसे भी देख ले ताकि आप को बात आसानी से समझ में आए| मेरे विडियो की लिंक इस विडियो के नीचे description में दी है|

पहले गुणस्थान मिथ्याद्रष्टि वाला मनुष्य जब आध्यात्मिक बात सुनता है तो उसके विचार और समझ में फर्क होता है| वह समझ तिन प्रकार की हो सकती है उस तिन प्रकार को चौथे, पाँचवें और सातवें गुणस्थान से बताया है|
जैसे पहले गुणस्थान मिथ्याद्रष्टि वाला मनुष्य आध्यात्मिक बात सुनता है और सोचता है की बात सही है आध्यात्मिकता के लिए कुछ करना चाहिए पर करता कुछ नहीं| तो वैसे मनुष्य को चौथे गुणस्थान असंयत  सम्यग्द्रष्टि वाला कहा जाता है| उस की मिथ्याद्रष्टि की संसार ही सब कुछ है बदली पर अभी पूरी तरह से सम्यग्द्रष्टि या सही समझ वाला नहीं बना|

दुसरी बात हो सकती है की मिथ्याद्रष्टि वाला मनुष्य आध्यात्मिक बात सुनता है और अपने जीवन को बदल ने के लिए कुछ बात शुरु भी करता है| जैसे सुबह योग करना शुरु करता है या प्रार्थना, पूजा शुरु करता है| उसे पाँचवें गुणस्थान देश-विरत वाला कहा जाता है|

तीसरी बात हो सकती है की मिथ्याद्रष्टि वाला मनुष्य आध्यात्मिक बात सुनता है और उसे बात इतनी पसंद आती है की तुरंत ही वह प्रतिज्ञा कर लेता है या किसी प्रकार का सन्यास या दीक्षा ले लेता है| उसे सातवीं गुणस्थान अप्रमत्त संयत वाला कहा जाता है|

जैसे हमने पहले देखा की गुणस्थान का मतलब होता है हमारी भावना ओ के उतार चढ़ाव का क्रम| तो अब होता ये है की गलत समझ वाला मनुष्य आध्यात्मिक बात सुन कर सही समझ पा कर चौथे, पाँचवें या सातवें गुणस्थान पर आ तो गया पर वह समझ ज्यादा समय रहती नहीं और वापिस संसार के रस लेने लगता है|
चौथी और पाँचवी गुणस्थान वाला, की जिसने खाली समझ पाई थी या समझ पा कर बदलाव के लिए कुछ काम किया था, उस की समझ गिर कर दूसरे या तीसरे गुणस्थान पर आ जाती है|

जो समझ को खो देता है और वापिस संसार में रस लेने लगता है, वह दूसरे गुणस्थान सासादन वाला कहलाता है|
जो समझ खोता नहीं यानी बदलाव के लिए योग, पूजा, प्रार्थना भी करता रहता है और संसार में रस भी लेते रहता है वह तीसरे गुणस्थान मिश्रदृष्टि वाला कहलाता है|

जो प्रतिज्ञा, सन्यास या दीक्षा ले कर सांतवें गुणस्थान पर चला गया था वह भी अगर ये सोचने लगता है की कहा फस गया ये आध्यात्मिकता से तो अच्छा संसारी जीवन था तो वह छठे गुणस्थान प्रमत्त संयत वाला कहलाता है| और अगर वह समझ को पूरी तरह से भूल कर संभोग वगैरह में पूरी तरह से ओतप्रोत हो जाता है तो वह दूसरे गुणस्थान सासादन वाला हो जाता है|

उस का मतलब है की दूसरे, तीसरे और छठे गुणस्थान पर मनुष्य सिर्फ गिर कर ही आता है|
यहाँ हमें ये याद रखना है की ये बातें हमें नीचा दिखाने के लिए नहीं| और ना ही ये देखने के लिए है की दूसरा क्या करता है| ये बातें सिर्फ इसलिए है की हम खुद की भावना ओ को देख सके और बदल सके|

और एक बात ये याद रखनी है की हमारी भावना ऐ प्रति पल बदलती है यानी हम थोड़ी देर ये सोचते है की आध्यात्मिकता अच्छी है और दूसरे ही पल सोचते है की संसार का आनंद प्रमोद ही अच्छा है| यानी प्रति पल हम एक गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में बदल ते रहते है|

आज संसार में ज्यादातर जीव १ से ५ गुणस्थान में ही घूमते रहते है| और व्यक्ति ज्यादा आध्यात्मिक हो और उस ने किसी भी धर्म में सन्यास या दीक्षा ली हो या ना ली हो पर आध्यात्मिकता से रहता हो वह ७ और ६ गुणस्थान में घूमता रहता है| यानी मन में ये सोचता रहता है की संसार के आनंद प्रमोद अच्छे है और साथ में आध्यात्मिक बातें भी करता रहता है|

चक्रों में इस बात को स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्र से बताया है| की व्यक्ति में घृणा, भय, हिंसा जैसे गुण भी होते है और संदेह भी जगा होता है की सही क्या है?

यहाँ मैंने किसी भी धर्म में सन्यास या दीक्षा लिए हुए व्यक्ति को बताया है| क्योंकि मेरा मानना है की सभी धर्म अलग अलग मार्गों से एक ही लक्ष्य पर ले जाते है| पर अगर आप किसी जैन मुनि से इसके बारे में पूछे तो वे कहते है की सिर्फ जैन दीक्षा लिया हुआ व्यक्ति ही सातवीं गुणस्थान पर जाता है| और अगर आप ये मानते हो की सभी धर्म एक ही लक्ष्य को पाने के अलग अलग मार्ग है तो वह कहेंगे की आप अभी तीसरे गुणस्थान मिश्रदृष्टि में पड़े हैं|

पर सत्य ये है की आप किसी भी धर्म, जाती या देश के हो अगर आप सच्चे हृदय से आध्यात्मिक बातों को करते हो तो आप सातवीं गुणस्थान अप्रमत्त संयत में आ जाते हैं और आगे बढ़ सकते हैं| आगे अगर आप को पता चले की आप का मार्ग गलत है तो आप खुद ही उसे बदल देंगे। ये बात जैन दर्शन में अदर्शन परिषह-जय संवर में बताया है| जो हम इसी विडियो में आगे देखेंगे|

अगर कोई साधक सच्चे हृदय से आध्यात्मिक बातों को करता रहें तो उसे ब्रह्म ऊर्जा के कुछ अनुभव जरूर होता है| सब साधक को अलग-अलग अनुभव होते है पर होते जरूर है| जैसे ही आप को ब्रह्म ऊर्जा के अनुभव होते है आप की श्रद्धा बढ़ जाती है तब आप आठवें गुणस्थान अपूर्वकरण पर आ जाते हो|

आठवें गुणस्थान अपूर्वकरण पर आप को ब्रह्म ऊर्जा के अनुभव हो जाते है तो अब ये सब भूल कर वापिस संसार के गिर जाना कठिन है| इसलिए बहुत कम साधक नीचे गिरते है| ज्यादातर साधक समझ में उपर ही जाते है|
पर अब यहाँ पर दो बातें हो सकती है| साधक दो रास्ते अपनी समझ बढ़ता है| वह दो रास्ते को उपशम श्रेणी और  क्षपक श्रेणी कहा जाता है|

उपशम श्रेणी मतलब साधक अपनी इच्छा को दबाकर समझ को बढ़ा रहा है| उदाहरण के लिए अब साधक को पता है की किसी प्राणी को मार कर खाना अच्छी बात नहीं इसलिए वह मास-मच्छी खता तो नहीं पर उस के मन में ये इच्छा बनी रहती है की अगर खा सकता तो अच्छा था|

ऐसी बुरी इच्छा ओ का मन में आना कषायो का उफान कहलाता है|

इसी तरह कभी गुस्सा, घृणा, लोभ वगैरह आ जाता है पर ये सोच कर रुक जाता है की लोग क्या कहेंगे| ये साधक इच्छा को दबाकर आगे बढ़ रहा है|

दूसरा साधक ऐसा होता है जिसे मास-मच्छी खाने का मन होता ही नहीं| हो सकता है की वह ऐसे घर में से आया हो जहाँ उस ने ये सब खा लिया हो और उसे पता चल गया हो की ये सब आनंद से आध्यात्मिक बातों का आनंद ज्यादा है| यानी अभी उस के प्रति उसकी कोई इच्छा होती ही नहीं वैसा साधक क्षपक श्रेणी यानी इच्छा का क्षय नाश कर के आगे बढ़ रहा है|

इसीलिए कहा जाता है की इच्छा ओ का दमन ना करे| उसे समझे और समझ से ही उसका नाश करे|
ये सारी बातें साधक के मन में होती है इसलिए बाहर से बताना नामुमकिन है| इसलिए हमें दूसरे साधक को नहीं पर अपने आप को देखना चाहिए|

अब अगर साधक दमन कर के या नाश कर के दोनों मैं से किसी भी रस्ते से आध्यात्मिक बातें करता जाता है तो वह नव में गुणस्थान अनिवृतिकरण में आ जाता है| यहाँ उसे दूसरे साधक और अपने आप में एक ही आत्मा है या हम सब जुड़े है वह दिखने लगता है|

साधना चालू रखने पर दूसरे सभी दुर्गुण छुट जाते है पर अच्छा करने का, धर्म का प्रचार करने का या दूसरों को सही राह दिखाने का सूक्ष्म लोभ रह जाता है| तब वह दसमें गुणस्थान सूक्ष्म-साम्पराय वाला कहलाता है|
चक्रों में उसे अनाहत और विशुद्धि चक्रों से बताया गया है| उसमें साधक की कल्पना शक्ति बढ़ती है और वह ये देख पता है की हम सब में एक ही आत्मा है| पर मुझे धर्म का प्रचार करना है, मैं सब को सही राह दिखूंगा, ऐसा “गलत मैं” भी खड़ा हो जाता है|

साधक अगर क्षपक श्रेणी यानी इच्छा का नाश कर के आगे बढ़ रहा है तो उसके पास एक रास्ता रहता है की वह सूक्ष्म लोभ को भी जाने दे अगर वह सूक्ष्म लोभ को भी जाने देता है तो हव सीधा बारहवां गुणस्थान क्षीणमोह में आ जाता है| क्षीणमोह यानी जिसका सारा मोह खत्म हो गया हो| उसे अब अच्छा करने का लोभ भी नहीं|

चक्रों में उसे आज्ञा चक्र को पार करने से बताया है|

साधक अगर गुणस्थान ८, ९, और १० की समझ उपशम श्रेणी यानी इच्छा ऑ को दबाकर ले रहा है तो वह ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह में आ जाता है|

जैसे हमने देखा की हमारी इच्छा समय समय पर बदलती रहती है| तो ग्यारवें गुणस्थान वाला साधक का समय बदलता है यानी काल क्षय होता है तो वह गुणस्थान १०, ९ और ८ पर आ जाता है| ऐसे ही साधक गुणस्थान ८ से ११ में घूमता रहता है|

अगर उसका मृत्यु हो जाए यानी भव क्षय हो जाए तो दूसरे जन्म में उसे वापिस चौथे गुणस्थान असंयत सम्यग्द्रष्टि से शुरु करना पड़ता है|

जैसे हमने चक्रों वाले विडियो के तीसरे भाग में देखा था वैसे नये जन्म में साधक को वापिस सारी यात्रा करनी पड़ती है| पर इस बार वह जल्दी समझ सकता है| वैसे ही चौथे गुणस्थान असंयत सम्यग्द्रष्टि से ले कर ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह तक का कोई भी साधक मृत्यु होने पर नये जन्म में चौथे गुणस्थान असंयत सम्यग्द्रष्टि से ही वापिस शुरु करता है|

यानी साधक पूरी समझदारी से साधना ना करे तो वह जन्मों जन्मों तक चौथे गुणस्थान से ग्यारवें गुणस्थान के बिच में घूमता रहता है|

अगर पूरी समझदारी से इच्छा ऑ का नाश करते आगे बढ़ता है तो बारहवां गुणस्थान क्षीणमोह में आ जाता है| यहाँ साधना करने पर उसे बहुत सारा ज्ञान मिलता है| जब उसे पूरा ज्ञान मिल जाता है तो वह तेरहवां गुणस्थान सयोग केवली कहलाता है| तब वह भगवान भी कहलाता है| पर उसे शरीर छुट जाने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है|

शरीर छुट जाने पर बहुत ही थोड़े समय यानी की कुछ क्षण के लिए ही वह शरीर से मुक्त चौदहवां गुणस्थान अयोग केवली में होता है और फिर वह ब्रह्म ऊर्जा में एक हो जाता है| जिसे मोक्ष कहा जाता है|
चक्रों में उसे सहस्रार चक्र को पार करके शून्य में वापिस मिल जाना और भगवान बुद्ध ने निर्वाण कहा है|
आशा है की ब्रह्म ऊर्जा की अनुभव बिना की अवस्था निगोद से लेकर अनुभव के साथ वाली अवस्था मोक्ष तक की पूरी यात्रा आप को समझ आ गई होगी| और आप ने ये भी देख लिया होगा की यात्रा में हम खुद कहा पर है| तो अब आगे की यात्रा करने के लिए जैन दर्शन में संवर और निर्जरा की विधि बताई है|

जैन दर्शन के संवर और निर्जरा को देखने से पहले हम ये देख ले की वेदों के सात चक्र, सात शरीर, भगवान बुद्ध के चार आर्य सत्य और महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की जो समझ हमने अगले विडियो में देखी है वह इस के साथ कैसे समानता में है|

अगर आप ने मेरे ये विषय के विडियो ना देखे हो तो इस विडियो के नीचे description में playlist की लिंक दी है उस में से आप सारे विडियो देख सकते है|

चौदह गुणस्थान में पहला गुणस्थान है मिथ्याद्रष्टि जिस का मतलब है ऐसा मनुष्य जिस को अभी कोई आध्यात्मिक समझ नहीं| चक्रों में उसे मूलाधार चक्र से बताया है की ऐसा मनुष्य जो अभी सिर्फ खाने और संभोग में ही रस लेता है|
भगवान बुद्ध ने चार आर्य सत्य में बताया है की ऐसा मनुष्य जिसे अभी पता नहीं की संसार में दुःख है|

दूसरे से ले कर सातवाँ गुणस्थान में मनुष्य आध्यात्मिक बातों में भी रस लेता है और संसार की बातों में भी रस लेता है|

चक्रों में इस बात को स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्र से बताया है| की व्यक्ति में घृणा, भय, हिंसा जैसे गुण भी होते है और संदेह भी जगा होता है की सही क्या है?

भगवान बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग में बताया है की मनुष्य अगर सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, और सम्यक व्यायाम या प्रयास रखे तो वह संसार की बातों को छोड़ कर आध्यात्मिक बातों में आगे बढ़ सकता है|

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में बताया है की मनुष्य को यम, नियम, आसन, और प्राणायाम कर के आध्यात्मिक बातों में आगे बढ़ना चाहिए|

आठवाँ गुणस्थान से ले कर ग्यारहवाँ गुणस्थान में मनुष्य आध्यात्मिक बातों में बहुत आगे बढ़ता है पर उसे के विचारों में संसार में रस लेता रहता है|

चक्रों में उसे अनाहत और विशुद्धि चक्रों से बताया गया है| उसमें साधक की कल्पना शक्ति बढ़ती है और उसे बहुत सारे आध्यात्मिक अनुभव भी होते है| पर वह गलत विचार करके “गलत मैं” में ज़ीने लगता है|
भगवान बुद्ध ने बताया है की मनुष्य को सम्यक स्मृति यानी वह क्या याद रखता है और क्या विचार करता है वह देखना चाहिए|

महर्षि पतंजलि ने कहा है की मनुष्य को प्रत्याहार यानी अपने विचारों को गलत बातों से खींच लेना है और अच्छी बातों की धारणा करनी है|

बारहवां गुणस्थान से ले कर चौदहवां गुणस्थान में साधक को मन की बहुत शक्ति मिलती है तब वह भगवान ही कहलाता है| पर उसे मोक्ष पाने के लिए अच्छा करने का सूक्ष्म लोभ भी छोड़ना पड़ता है|

चक्रों में उसे आज्ञा और सहस्रार चक्रों से बताया गया है| तब वह देव या दानव बन सकता है और उसे शून्य में वापिस मिल जाने के लिए सारी इच्छा ओ को छोड़ना पड़ता है|

भगवान बुद्ध ने बताया है की साधक को सम्यक समाधि पाने की कोशिश करनी है|

महर्षि पतंजलि ने कहा है की साधक को ध्यान से आगे बढ़ना है|

ये हमने वेदों के सात चक्रों, सात शरीर, भगवान बुद्ध के चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग और महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की बात की| जैन दर्शन में यही बात कुल बासठ संवर और बारह निर्जरा से बताई है|

संवर में
५ व्रत
५ समिति
३ गुप्ति
१० धर्म
१२ अनुप्रेक्षा
२२ परिषह-जय
५ चारित्र

और निर्जरा में
६ बाह्य तप और
६ आभ्यंतर तप बताएं है|

तो आए हर एक को विस्तार से देखे|

हमने देखा की गुणस्थान का मतलब होता है हमारी भावना ओ के उतार चढ़ाव के क्रम| जब भावना ओ के उतार चढ़ाव होते है उसे भाव कर्म कहा जाता है| और उस भावना से हम जो कर्म भौतिक जगत में करते है उसे द्रव्य कर्म कहा जाता है|

जैन दर्शन में कर्म के आठ प्रकार बताएं है|

कर्म – भाव, विचार और भौतिक जगत में होने वाली क्रिया|

१. ज्ञानावरणीय कर्म – मान्यता की वजह से होने वाले कर्म|
२. दर्शनावरणीय कर्म – समझ की कमी की वजह से होने वाले कर्म|
३. वेदनीय कर्म – सुख, दुःख की वेदना की वजह से होने वाले कर्म|
४. मोहनीय कर्म – मोह की वजह से होने वाले कर्म|
५. आयु कर्म – शरीर की निश्चित आयु की वजह से होने वाले कर्म|

मनुष्य, देव या दानव योनि के सभी शरीर के अलग अलग आयु होती है| उस आयु को पूरा करने के लिए हमें कुछ कर्म करने पड़ते है| वह कर्म के बारे में यहाँ बताया है|

६. नाम कर्म – जीव की उत्क्रांति की वजह से होने वाले कर्म|
जैसे हमने देखा की हमारा जीव प्राणी जगत से विकास हो कर आया है उस विकास के दौरान हुए अनुभव की वजह से हम कुछ कर्म करते है| वह कर्म|

७. गोत्र कर्म – देश, जाती, जहाँ जीव पैदा हुआ उसकी वजह से होने वाले कर्म|

८. अन्तराय कर्म – अच्छा या बुरा कर्म करने में रुकावट की वजह से होने वाले कर्म|
हम जो कर्म करना चाहते हो और किसी वजह से रुक जाए तो उसके बाद भी हम कुछ कर्म करेंगे| वह कर्म|

ये सारे कर्म पहले भाव, इच्छा या विचार के रूप में होते है| और फिर भौतिक कर्म होता है| कर्म के ये दोनों ही प्रकार मोक्ष के मार्ग में रुकावट है| इसलिए जैन दर्शन में कर्म को रोकने के लिए संवर और निर्जरा की विधि बताई है| यहाँ मैंने कर्म को विस्तार से नहीं समझाया पर संवर और निर्जरा को विस्तार से समझाया है|

जैसे हमारी रूम में कचरा भर जाए तो हमें पहले कचरे के आने का द्वार बंद करना पड़ेगा और फिर अंदर पड़ा कचरा साफ़ करना पड़ेगा| अगर हम द्वार बंद किये बिना कचरा साफ़ करे तो कोई फायदा नहीं होगा और अगर द्वार बंद करके फिर अंदर का कचरा ना साफ करे तो भी फायदा नहीं होगा| यानी हमें दोनों ही एक के बाद एक करना पड़ेगा| वैसे ही कर्म जिस वजह से होता है वह द्वार को बंद करने को संवर कहा जाता है| और हो गये कर्म को निकाल ने या साफ करने को निर्जरा कहते है|

संवर ६२ – रोकना या बंध करना|

कुल ६२ प्रकार के कर्म को हमें रोकना है| ये कर्म दो जगह पर रोक सकते है|
१. द्रव्य संवर – भौतिक कार्य में रोकना|
२. भाव संवर – मानसिक विचारों में रोकना|

कोई भी कार्य करने से पहले हम उसका विचार करते है और फिर वह कर्म होता है| कर्म को पूरी तरह से रोकने के लिए हमें उसके बारे में सोचना भी बंद करना पड़ेगा|

तो आए एक एक संवर को देखे|

१. व्रत ५ – संकल्प लेना|

किसी भी बात को करने से पहले हमें नक्की करना पड़ता है की हमें करना ही है| नहीं तो ऐसे विडियो देखेंगे और फिर भूल जाएंगे| तो हमें संकल्प लेना पड़ेगा की मुझे इस रस्ते चलना ही है| उसे व्रत कहते है|

१. अहिंसा व्रत – मन, वचन और शरीर से हिंसा ना करने का संकल्प|
हिंसा न करने का मतलब सिर्फ किसी का खून न करना इतना ही नहीं पर हमारे मन में भी ये विचार करते रहना की “ये मर जाये तो अच्छा है” ये भी हिंसा है|

२. सत्य व्रत – जूठ ना बोलने का संकल्प|

३. अचौर्य व्रत – चोरी ना करने का संकल्प|
आज हम छोटी छोटी बातों में नौकरी, धंधे में दूसरे को धोका देकर भी चोरी करते है|

४. ब्रह्मचर्य व्रत – ब्रह्म जैसी चर्या यानी मेरी और दूसरे की आत्मा एक ही है वह देखने का संकल्प|
ब्रह्मचर्य का मतलब ये नहीं की संभोग नहीं करना पर ये है की मैं और दूसरा मनुष्य, या प्राणी सब एक ही आत्मा से जुड़े है वह समझ कर जीना|

५. अपरिग्रह व्रत – आसक्ति की मूर्छा में न रहने का संकल्प|
किसी वस्तु, सत्ता या मनुष्य को पाने की तीव्र इच्छा आसक्ति की मूर्छा है|

ये सभी चार्ट मेरे ब्लॉग पर रखे है| तो अगर आप चाहे तो वहाँ से डाउनलोड कर सकते हो|

२. समिति ५ – सावधानीपूर्वक रहना|

१. ईर्या समिति – चलने फिर ने में सावधानी|
बहुत लोग रास्ते में चलते चलते बिना वजह कुत्ते को लात मारते है, पौधे, पत्ते को तोड़ डालते है|

२. भाषा समिति - बोलने में सावधानी|
बहुत लोग हँसी मजाक में कहते है की “तू मर जा” या “तेरा बुरा होगा”| कितनी माँ ऐसी है जो हँसी मजाक में अपनी बेटी को कहती है की “तुझे तो ऐसी सास मिलेगी की तू रोज मार खाएगी” अब ये सब बोल कर उन्हें पता नहीं की कितना बड़ा प्रोब्लम उन्होंने खड़ा किया| इस लिए बोलने में सावधानी बहुत जरूरी है|

३. एषणा समिति - आहार ग्रहण करने में सावधानी|
बहुत लोग को खाने के समय कब रुकना है पता ही नहीं| इतना खा लेते है फिर प्रोब्लम होती है तब दूसरों को दोष देते है| सुबह फसेबूक स्टेट्स लगा देते है की है भगवान या तो जान निकल दे या नान निकल दे| बात को हँसी मजाक में भूल जाते है पर ये नहीं देखते की मेरे कुछ करने की वजह से में तकलीफ में हु|

४. आदान निक्षेपण समिति - वस्तु का उपयोग करने में सावधानी|
बहुत लोग चीजों को फेंक कर ही रखते है| खिड़की दरवाजे को लात मार कर बंद करते है| हमें लगता है की ये चीज निर्जीव है तो में लात मारू या पटक दु क्या फर्क पड़ता है? पर ऐसा नहीं चीजे निर्जीव है पर चीजों के आजूबाजू की ऊर्जा निर्जीव नहीं इसलिए वस्तु का उपयोग करने में सावधानी रखनी जरूरी है|

५. प्रतिष्ठापन समिति - मलमूत्र त्याग करने में सावधानी|
हमें ये देखना चाहिए की हम हमारा कचरा कहा डालते है| और उससे किसी का कोई नुकसान तो नहीं होता? यहाँ सिर्फ देह से या घर में से निकल ने वाले कचरे की बात नहीं पर हमारे मन में से निकल ने वाले कचरे की भी बात है| आज कल हम Whatsapp, Facebook पर बिना मतलब की बातों को कर के मन का कचरा दूसरों पर डालते है| हम क्या पढ़ते है उसमें भी हमें सावधानी रखनी है|

३. गुप्ती ३ – गुप्त रखना या दबा देना|

१. मनो गुप्ती – गलत विचारों को मन में न लाना|

२. वचन गुप्ती – गलत बातों को ना बोलना|

३. काय गुप्ती – गलत बातों को ना करना|
हम जो कार्य करते है वह सब से पहले हमारे मन में विचार के रूप में आता है| वही उसे समझ के द्वारा दबा देना चाहिए| अगर विचार में ना दबा सके तो ना बोल कर दबाना चाहिए|

४. धर्म १० – सुख से रहने के लिए समझ|

१. उत्तम क्षमा धर्म – व्यवहार में क्षमा करना|
२. मार्दव धर्म - व्यवहार में विनम्र रहना|
३. आर्जव धर्म - व्यवहार में सरल रहना|
४. सत्‍य धर्म - व्यवहार में सत्य बोलना|
५. शौच धर्म - व्यवहार में साफ़ रहना|
६. संयम धर्म - व्यवहार में संयम रखना|
७. तप धर्म - व्यवहार में दूसरों का बुरा करने से अपने आप को रोकना|
८. त्‍याग धर्म - व्यवहार में छोटी से छोटी वस्तु में लाभ लेने का त्याग करना|
९. आकिंचन्‍य धर्म - व्यवहार में कोई हमारा बुरा करे तो “मेरा कुछ भी नहीं” ये समझ कर सहन कर लेना|
१०. ब्रह्मचर्य धर्म - व्यवहार में दूसरे की आत्मा मेरी ही है वह जान कर, अपने जैसा व्यवहार करना|

ये सभी बातों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है| पर मैंने थोड़ी थोड़ी बातें ही बताई है| क्योंकि आप को सब कुछ पता ही है| आप खुद सब पर विचार करेंगे तो अच्छा होगा|

५. अनुप्रेक्षा १२ – निरन्तर याद करना| चिंतन करना|

अगर हमें मोक्ष के मार्ग में आगे बढ़ना है तो हमें कुछ बातें याद रखनी पड़ेगी ताकि हम व्यर्थ के काम ना करे|

१. अनित्य अनुप्रेक्षा – संपत्ति, संबंध, शरीर सब कुछ नष्ट होने वाला है वह निरन्तर याद रखना|

२. अशरण अनुप्रेक्षा – धन, परिवार, दैवी-देवता कुछ भी हमें बचा नहीं सकते वह निरन्तर याद रखना|
ये बात बहुत ही महत्वपूर्ण है| इस पृथ्वी पर जीवित रहने के लिए हम धन, सत्ता, परिवार सब इकठ्ठा करते रहते है| या फिर दैवी-देवता में मानते रहते है| बहुत लोगों को लगता है की कोई गुरु मिल जायेगा और सब ठीक हो जायेगा पर यहाँ हमें याद रखना है की कोई हमें नहीं बचा सकता हमें खुद ही अपने पैरों पे खड़े हो कर मोक्ष के लिए आगे बढ़ना होगा|
भगवान बुद्ध ने भी यही बात “अप दीपो भवह:” कह कर बताई है|

३. संसार अनुप्रेक्षा – संसार में रहना दुःख है वह निरन्तर याद रखना|

४. एकत्व अनुप्रेक्षा – हम अकेले ही है कोई साथ नहीं आता वह निरन्तर याद रखना|
बहुत लोग साथ ढूँढ़ते रहते है उस लिए वह लोग कोई ना कोई काम करते रहते है या क्लब में जुड़े रहते है| या तो फिर धार्मिक बातों में शिविर वगैरह करते रहते है क्योंकि वह लोग अकेले होने से डरते है|

५. अन्यत्व अनुप्रेक्षा – धन, परिवार, शरीर सब मुझ से अलग है वह निरन्तर याद रखना|

६. अशुचि अनुप्रेक्षा – शरीर की सुंदरता कुछ भी नहीं वह निरन्तर याद रखना|

७. आस्रव अनुप्रेक्षा – शरीर, मन और वाणी से जो हम करते है उस से कर्म बंधन होता है वह निरन्तर याद रखना|

८. संवर अनुप्रेक्षा – कर्म बंधन को हमेशा रोकना है वह निरन्तर याद रखना|

९. निर्जरा अनुप्रेक्षा – जो कर्म बंधन हमने बना लिए है उसे निकल ना है वह निरन्तर याद रखना|

१०. लोक अनुप्रेक्षा – शुभ कर्म से देव लोक, बुरे कर्म से नरक लोक और कर्म छोड़ ने से मोक्ष होगा वह निरन्तर याद रखना| 

११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा – सच्चे ज्ञान से में इस संसार से छुट सकता हु वह निरन्तर याद रखना|

१२. धर्म अनुप्रेक्षा – सच्चा ज्ञान ही मेरे साथ आयेगा बाकी सब छुट जायेगा वह निरन्तर याद रखना|

६. परिषह-जय २२ – परिस्थिति को समता पूर्वक सहन करना|

जब हम इस शरीर में इस पृथ्वी पर आए है तो यहाँ दूसरे भी लोग और जीव है| उस से हमें कुछ तकलीफ़ें होती है| उसे हमें समता पूर्वक सहन करना पड़ेगा, नहीं तो हम यूँ ही इस परिस्थिति से लड़ते रहेंगे|

१. क्षुधा – भूख को समता पूर्वक सहन करना|
२. तृषा – प्यास को समता पूर्वक सहन करना|
३. शीत – ठंड को समता पूर्वक सहन करना|
४. उष्ण – गर्मी को समता पूर्वक सहन करना|

५. दंशमशक – मच्छर, मक्खी को समता पूर्वक सहन करना|
ये सारे परिषह-जय बताते है की रोज के जीवन में होने वाली तकलीफ़ें हमें सहन करनी है| उस में शिकायत नहीं करते रहना|

६. नग्नता – अपने आप के दोषों को समता पूर्वक सहन करना|
हमारे अपने दोषों को समझ पूर्वक निकाल ना है| और जब तक ना निकले तब तक सहन करना है| अँग्रेज़ी में जिसे self-pity कहते है वह यानी खुद की दया नहीं करनी की “मैं बुरा हु” अभी में क्या करुँ?

७. अरति – असंतुष्टि या नियंत्रण न कर सके तो उसे समता पूर्वक सहन करना|
अगर हम परिस्थिति को ना संभाल सके और कुछ बुरा हो जाए तो उस में खुद को माफ कर देना|

८. स्त्री – विजातीय व्यक्ति को देख कर उठने वाली इच्छा को समता पूर्वक सहन करना|
जब हमें मूलाधार चक्र की ऊर्जा की वजह से दूसरे व्यक्ति को देख कर मन में वासना जगती है तब “मैं बहुत बुरा हु” ऐसी भावना नहीं होनी चाहिए पर उसे समझ पूर्वक पार करना है|

९. चर्या – उबाऊ दिनचर्या को समता पूर्वक सहन करना|
कभी कभी हमें रोज एक ही प्रकार के काम करने पड़ते है उन कामों में उब नहीं जाना वरना हम उस उबाऊ की वजह से बुरे काम करने लगते है|

१०. निषद्या – जैसे बैठे है वैसे ही स्थिर हो कर रहना|
मैंने मेरे महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग वाले विडियो में भी ये बात बताई है की हमें स्थिर एक ही आसन में थोड़ी देर बैठ ने का अभ्यास करना चाहिए|

११. शय्या – रात्रि सोने में होने वाली तकलीफ को समता पूर्वक सहन करना|
रात को हमें कभी कभी बहुत बुरे ख्याल आते है तब “मैं बुरा हु” इसलिए मैं ऐसे बुरे ख्याल करता हु ऐसी भावना नहीं करनी पर उसे समझ पूर्वक निकाल ना है और जब तक ना निकले उसे सहन करना है|

१२. आक्रोश – आप पर गुस्सा करने वालों को समता पूर्वक सहन करना|
कोई हम पर गुस्सा करता है तो सामने गुस्सा नहीं करना|

१३. वध – आप को मार ने वालों को समता पूर्वक सहन करना|
अगर कोई हमारा बुरा करता है तो उसका बुरा करने की कोशिश नहीं करनी|

१४. याचना – जरूरत को सहन करना कुछ मांग नहीं करना|
बहुत लोग जीवन में क्या क्या नहीं मिला वह ही गिनते रहते है| उस से बहुत बुरी ऊर्जा पैदा होती है| इसलिए जो चीज़ हेम ना मिली हो उसे जाने देना होगा|

१५. अलाभ – लाभ की इच्छा न रखना|
सभी बातों में मुझे ही लाभ होना चाहिए चाहे उस से किसी का बुरा हो ऐसा नहीं सोचना| बहुत लोग ऐसे है की कोई काम करवाना हो तो दूसरा जो वह काम करेगा उसको कम से कम पैसे देना चाहते है| यानी खुद का लाभ ही देखते है| पर हमें याद रखना है की सिर्फ हमारा लाभ ही नहीं पर कभी दूसरों को भी लाभ देना है|

१६. रोग – शरीर में कोई रोग होने पर समता पूर्वक सहन करना|
अगर हम आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहें है और फिर भी कोई बीमारी आती है तो “ऐसा मुझे को हो रहा है” या “भगवान क्यों कुछ नहीं करता” ये सब बातें नहीं करनी चाहिए|

१७. तृणस्पर्श – कांटा वगैरह चुभनें पर पीड़ा को समता पूर्वक सहन करना|
अगर थोडासा बुरा हो तो उसे बड़ा बनाकर दिखाने की जरूरत नहीं पर उसे सहन कर लेना है|

१८. मल – पसीने से होने वाली तकलीफ को समता पूर्वक सहन करना|
जैसे पसीना आता है वैसे कई बातें कुदरती होती है| ऐसी कई बातों से हमें तकलीफ भी होती है वह सब हमें समता पूर्वक सहन करना होगा| अब अगर कोई ऐसी जिद करने लगे की मुझे कभी पसीना नहीं आना चाहिए या ये पसीने की बदबू क्यों आती है? तो वह तकलीफ में पड़ेगा| जो बातें हम ठीक कर सके करना चाहिए और ठीक ना ही कर सके तो उसे समझ पूर्वक सहन कर लेना है|

१९. सत्कार-पुरस्कार – मान अपमान दोनों ने समद्रष्टि रखना|
अगर कोई मान देता है तो बहुत खुश हो जाना नहीं और कोई अपमान करे तब बहुत नाराज होना नहीं|

२०. प्रज्ञा – अपने ज्ञान का अहंकार न करना|
मैंने मेरे आगे के सभी विडियो में बताया है की ये जो आखिर की तीन बातें है वह बहुत ही कठिन है| इस का मतलब है की हम जानते है की सच्ची बात क्या है और फिर भी कोई हमारी बात मान ने को तैयार नहीं तब हमें अहंकार नहीं करना पर सहन करना है|

२१. अज्ञान – अज्ञान व्यक्ति ओ को समता पूर्वक सहन करना|
हम सत्य जानते है फिर भी कोई ना माने और गलत काम करता रहें तो उसे बल पूर्वक ठीक करने की जरूरत नहीं पर उसे सहन करना होगा|

२२. अदर्शन – मुनि मार्ग से गिर जाने पर मार्ग छोड़ना नहीं|
जैसे मैंने पहले भी बताया की अगर हम किसी भी धर्म में सन्यास या दीक्षा लेते है और फिर कुछ बुराई हो जाती है तो “मैं बहुत खराब हु” ऐसा सोच कर पूरा मार्ग छोड़ नहीं देना| पर समझ पूर्वक अपने आप को ठीक करना है|

७. चारित्र ५ – आध्यात्मिकता में स्थिर रहना|

१. सामायिक – सभी पाप वृत्ति का त्याग करना|
२. छेदोपस्‍थापना – संसार में लग जाने वाले दोषों को दूर करना|
३. परिहारविशुद्धि – विचारों में चल रहें सूक्ष्म दोषों को दूर करना|

४. सूक्ष्‍मसांपराय – शुभ करने का सूक्ष्म लोभ भी दूर करना|
आखिर में हम बुरे विचार तो नहीं करते पर अच्छे विचार करते रहते है की कैसे में शुभ काम करुँ? कैसे में मंदिर बनाऊ? कैसे में सत्य का प्रचार करुँ? अगर हमें मोक्ष के मार्ग में आगे बढ़ना है तो आखिर में ये सब अच्छे विचार भी छोड़ने होंगे|

५. यथाख्‍यात – कुछ भी करने की इच्छा ना रहें| मोक्ष पाने की इच्छा भी नहीं वैसा चारित्र|
आखिर में हमें मोक्ष पाने की इच्छा भी छोडनी पड़ती है| जब मन में कोई इच्छा ना हो तब शून्य, मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होता है|

ये कुल ६२ संवर है उस के मुताबिक हमें विचारों और कर्मों को बंद करना पड़ेगा|

निर्जरा १२ – जो कर्म हो गये है उस साफ करना|

जब हम विचारों और कर्मों को बंध करते जाते है तो साथ साथ हमें पहले किये हू वे कर्म को साफ भी करते जाना पड़ता है| उसे के लिए १२ निर्जरा या सफाई बताई है|

१. बाह्य तप ६ – शरीर के तप

१. अनशन – लंबे उपवास करना|
जन्मों जन्मों में हमने जो कर्म की ऊर्जा हमारे जीव में इकठ्ठा की है उसे दूर करने के लिए हमें थोड़े थोड़े दिनों में उपवास करना चाहिए|

२. अवमौदर्य – आधा पेट ही खाना|
रोज के खाने में भी कम खाना खाना चाहिए| आप को लगेगा की खाने के साथ कर्म का क्या लेना देना| पर ये याद रहें की हमारा शरीर अन्न से ही बनता है और कम खाने या लंबे उपवास करने से बहुत सी ऊर्जा बदलती है| सारी बातें में यहाँ अभी नहीं बता सकता पर ये बातें बहुत उपयोगी है उतना याद रखे|

३. वृत्तिपरिसंख्‍यान – खाने के लिए एक मात्रा तय करना|
रोज खाने की एक मात्रा होनी चाहिए जैसे की अगर हम ने नक्की किया की एक समय के खाने  में दो रोटी खाऊंगा तो फिर खाना अच्छा है या बुरा दो रोटी ही खानि है|

४. रसपरित्‍याग – खाने में रस लेने में उदासीन बनना|
रोज मुझे स्वादिष्ट खाना ही चाहिए या उस से उलटा की में कभी कोई स्वादिष्ट खाना नहीं खाऊंगा और सिर्फ कड़वाहट वाला खाना ही खाऊंगा ऐसे दोनों अतियों में नहीं जाना बस स्वाद के प्रति उदासीन बने रहना है|

५. विविक्तशय्यासन – साधना, ध्यान करने के लिए एकांत में रहना|

६. कायक्‍लेश – साधना से होनेवाले शारीरिक कष्ट को सहन करना|
जब हम ध्यान वगैरह करते है तो हमारे शरीर से बहुत प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा जो हमने जन्मों जन्मों में इकठ्ठा की है वह सब निकलती है तब शरीर में कष्ट शुरु होता है| वह कष्ट हमें सहन करना ही होगा|

२. आभ्यंतर तप ६ – मन के तप

१. प्रायश्चित्त – हो गई गलत बातों के लिए माफ़ी मांगना|
बहुत ऐसी गलतीयों होती है जो हमें पता भी नहीं होती इसलिए सब बातों के लिए प्रार्थना में माफ़ी मांग ले नी चाहिए|

२. विनय – दया भाव या विनय रखना|

३. वैयावृत्य – साथी ओ की सेवा करना|
आप के आस पास जितने लोग हो उस की सेवा करने का भाव रखना चाहिए ना की ये सोचना की ये तो पत्नी है उसका फर्ज है मेरे सारे काम करने का| नौकरी या धंधे में अपने हाथ के नीचे काम करने वाले लोगों की भी सेवा का भाव रखना चाहिए|

४. स्‍वाध्‍याय – खुद का अभ्यास करना की मेरी गलती कहा है|
सब लोगों को लगता है की मेरी तो कोई गलती है ही नहीं पूरी दुनिया खराब है| इसलिए हमें भाव करते रहना है की मेरी गलती कहा है?

५. व्‍युत्‍सर्ग – सभी प्रकार की ममत्व का त्याग करना|
मेरा है या मेरा नहीं है वह भाव को त्याग करना है|

६. ध्‍यान – निर्विचार स्थिति लाने के लिए ध्यान करना|
रोज कम से कम आधा घंटा शांत खाली बैठ कर ध्यान करना है|

कर्म का मार्ग बहुत लम्बा मार्ग है| इस में आप को एक एक बातों को ध्यान में रखना पड़ता है| अगर आप कर्म के मार्ग से मोक्ष पाना चाहते है तो ये सारी बातों को ध्यान में रख कर सुधार करना पड़ेगा| ऐसे विडियो को बार बार देखना होगा तब ये बात हमारी बुद्धि में बैठेगी और हम मिथ्याद्रष्टि से सम्यग्द्रष्टि बन पाएंगे| तो आए आज से ही इस पर चलना शुरु करे|

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